शब्द के शब्दार्थ से कभी तो बाहर आओ
भावार्थ और गूढ़ार्थ को भी अपनी समझ का हिस्सा बनाओ।
शब्द के अर्थ को अनर्थ कर देती है “संकुचित सोच,”
जरा भावार्थ और गूढ़ार्थ के पंख तो फैलाओ।
शब्द के केवल शब्दार्थ से कभी तो बाहर आओ।
किस संदर्भ में किस व्यवस्था को,
समझाने की कोशिश की,
कहने वाले ने,
थोड़ा तो सोचो,
फिर इल्जाम लगाओ।
एकदम से उखड़ जाते हो,
एकदम से बिखर जाते हो
एकदम से बिफर जाते हो
एक पल तो ठहरो,
सुनने से समझने तक की गली के,
एक दो चक्कर तो लगाओ।
भावार्थ और गूढ़ार्थ को भी अपनी समझ का हिस्सा बनाओ।
कोशिश तो करो महसूस करने की, कितनी हिम्मत लगी होगी ,
सच कहने की।
अभी तो सिर्फ शुरुआत की थी, मन की गहराई से बाहर आने की,
तुमने फिर ढकेल दिया
मन के अंधेरे कुंए में,
यह कहकर,
हमें समझ नहीं आती बातें तुम्हारी।
कोशिश तो करो महसूस करने की, कभी तो शब्द के शब्दार्थ से बाहर आओ।
भावार्थ और गूढ़ार्थ को भी अपनी समझ का हिस्सा बनाओ ।
शब्द इतने नुकीले भी हमेशा नहीं होते,
जितना की चुभन तुम महसूस करते हो।
कभी अपनी कमजोरी का भी एहसास करो,
कभी अपनी सुनने की भी ताकत बढ़ाओ ।
कभी तो केवल शब्दार्थ से बाहर आओ।
जब सब अच्छा ही चाहते हैं तो इतनी दूरियां और मजबूरियां क्यों?
कह भी दिया किसी ने कुछ ,
तो,
वह उसकी समझ थी,
उसकी समझ पर, अपनी समझ की, मुहर ना लगाओ।
कभी तो शब्द के शब्दार्थ से, बाहर आओ,
कभी तो भावार्थ और गूढ़ार्थ को भी अपनी समझ का हिस्सा बनाओ।
3 Responses
Nicely written
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