वनवास अज्ञातवास,
वनवास हो
या अज्ञातवास, जीना तो पड़ता है।
कुछ कर्मों का हिसाब पुराना
करना तो पड़ता है।
युगों युगों से है यह अमर गाथा।
खुशी से
या मन को मारकर, हर कोई
है यह गीत गाता।
राम गए वनवास, पांडव गए अज्ञातवास,
सीता ने झेली
थोड़ी और त्रास,
द्रौपदी की बुझी खून की प्यास।
कर्म का फल तो अवश्य आएगा,
कर्म बीज जो बोया है
वही फल पाएगा।
जीत लो, काट लो वनवास को, अज्ञातवास को,
यही “वक्त” कहलाता है।
कुछ नहीं बदलता है यहां,
पर “समय” बदल जाता है।
पहले लोग रामायण-महाभारत के पात्रों को जीते थे,
वनवास या अज्ञातवास को सहज ले लेते थे।
अब इंस्टेंट का जमाना है,
तारे नक्षत्रों को भी मुट्ठी में लाना है।
सो “ग्रहों” को मान दिया,
वनवास-अज्ञातवास को विदेश जाने का नाम दिया।
अकेले रहेंगे, आराम से रहेंगे,
जैसे चाहे वैसे रहेंगे।
पर कर्म पीछा नहीं छोड़ता,
दूर से वन भी बगीचा सा लगता।
संतों ने कहा है: सेवा, सिर्फ सेवा,
और कर्तव्य-कर्म से ही समय बदलता।
कर लो अपनी मर्जी कितनी भी,
प्रभु की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।
एक समय आता है सबके जीवन में,
जब अहंकार को “सोऽहं” का साथ मिलता।
कर लो कितनी भी चालाकी,
कर लो कितनी भी चतुराई,
कर्म का लेख मिटे ना, रे भाई।
सो, भाई, समझ जाओ,
वनवास हो या अज्ञातवास,
खुशी से गले लगाओ।
मुश्किल है,
पर हे मानव!
तूने तो पहाड़ों का सीना फोड़ा है,
क्यों घबराए परिस्थिति से,
जब प्रभु से नाता जोड़ा है।
करके दिखलाया राम ने,
करके दिखलाया कृष्ण ने,
क्योंकि तुम कर सकते हो,
तो कर डालो,
जो कुछ आया जीवन में।
वनवास हो या अज्ञातवास,
मुस्कुराकर, गले लगाकर,
कर्म की राह चूमकर
कर लो आसमान मुट्ठी में।
जी लो जो कुछ आया जीवन में
कर लो आसमान मुट्ठी में।
कर लो आसमान मुट्ठी में।