ख़त
जब खुद के लिखे ख़त खुद ही मिटा देती हूं,
या उन खतों को गति नहीं देती हूं।
लिखती हूं ये सोचकर,
कि तुम दूर हो कितने,
तब कानों में आकर तुम कहते हो,
“तुम हो मेरे अपने।”
दूरियों का एहसास तब गुम हो जाता है,
लिखने का कोई महत्व ही नहीं रह जाता है।
कहते हो,
“अरे पगली,
ढूंढती हो तुम मुझे कहां?
मैं तो रहता हूं पास तेरे हर वक्त,
क्यूं तू मुझे ढूंढे जहां में? यहां और वहां।”
“बस यही तक तो गया था,
पल भर का एक पर्दा था।
क्यों व्याकुल होती हो, प्रिये?
मैं तेरा हूं,
यह फ़िक्र मुझे तुझसे है ज्यादा।
इसलिए इन ख़तों का,
अब है क्या फायदा?”
दिल से दिल की बात,
सिर्फ दिल को करने दो।
क्रिया-प्रतिक्रिया को महत्व मत दो।
शांत हो,
या बनो कोई संत,
कोई फर्क नहीं,
सर्वत्र मुझे ही पाओ,
सत्य का जिक्र यही।
सो, एहसास करो, सिर्फ एहसास।
खुशबू बन मैं हूं पास,
तुम्हारे,
बहुत पास, बहुत पास।