जब “आलिंगन” बंधन लगता है ।
तब “मिलन” भी अधूरा लगता है।
मजबूरी “मिलन” को भी अधूरा कर जाती है।
अगर फ़ासले हैं दिलों में ,
तब आलिंगन के बाद भी फांस रह जाती है।
दिल से दिल का मिलना,
कितना जरूरी है।
बिना कहे, हर बात, सुनना -समझना भी जरूरी है।
यह सब अब कौन समझता है।
जल्दी में है सब,
मिलना अब, जरूरत नहीं,
सिर्फ जरूरी है।
“आलिंगन -मिलन ” बन गए आज मजबूरी है।
हंस कर कहना,
कहकर हंस देना
अब “मिलन” में भी कितनी दूरी है ,
“मिलन” की प्यास कितनी अधूरी है।
अलग होना
अब मुक्ती सा लगता है।
“मिलन ” भी कहां पूरा लगता है,
” आलिंगन” भी
अब बंधन सा लगता है।
अब “आलिंगन” भी बंधन सा लगता है।