जिंदगी जब गद्य से पद्ध बन जाती है,
समझदारों को समझ में नहीं आती है ,
कविता मन के मारों को खूब भाती है।
शब्दों के अर्थ से निकलकर भावार्थ और गूढ़ार्थों की ओर बढ़ जाती है।कविता मन के मारों को खूब भाती है।
यह मन के प्यासों की प्यास बुझाये गोरी की अधजल गगरी सी बस, छलकती ही जाए, छलकती ही जाए।
मन से अठखेलियां करती है भावनाएं,
धूप और छांव को बैलेंस करती हैं कामनाएं,
मन, रात -रात भर, शोर मचाए,
सारी बातें ,भोर होने पर, गुम हो जाए।
कविता में जिंदगी छलक छलक कर, मन के प्यासों की प्यास बुझाये,
गोरी की अधजल गगरी सी ,
बस ,
छलकती ही जाए ,
छलकती ही जाए।