जय गंगा माँ
सागर से मिलकर मां कितनी अकुलाईं,
कोई न जाना, कोई न माना।
सागर से मिलकर मां कितनी घबराईं,
कोई न जाना, कोई न माना।
कोई न जाना, कोई न माना।
बूंद-बूंद पर राज था उनका,
राजा थे, राज था मन का।
व्याकुल मां कितनी थी,
कोई न जाना, कोई न माना।
बूंद-बूंद उठी और ओस बन गई,
पवन के संग उड़ी, मां कैलाश पर गई।
क्यों तुमने मुझको दूर किया?
क्यों मुझसे मुख फेर लिया?
क्या मेरा था अपराध?
सिसक-सिसक कर,
रोती रही,
कहानी अपनी कहती रही।
कैसे घाटों पर हुई मनमानी,
कैसे न कदर किसी ने जानी।
हाल कहा,
बेहाल कहा,
हर हाल में हर हाल कहा।
कहती रही, कहती रही,
सिसक-सिसक कर,
कहती ही रही।
मौन थे अब तक कैलाशी,
घट-घट के थे वह अविनाशी।
मुस्काए, आंखें खोली,
मौन हुई मां,
अब मां की बोली।
“प्रिये, तुम्हें बतलाता हूं,
तेरी अमर कहानी तुझको ही सुनाता हूं।
तुम हो आई स्वर्ग से,
मैं धरा पर हूं खड़ा।
कौन संभालेगा तुमको,
प्रश्न था विचित्र और बड़ा।
जिस कारण आई हो तुम,
क्यों, खुद तुम ही भूल गईं?
स्वर्ग सी सुंदर तुम,
जटाओं में मेरी कूल गईं।
खोली थी बस एक धारा,
उसी से तुमने जग को तारा।
जब सागर से जाकर तुम मिलीं,
तेरे ही कारण कितनी कलियां थीं खिलीं।
हर-हर ने पुकारा,
जय मां, जय गंगा की धारा।
तेरे कारण से तरे सब,
तेरी ममता से भरे सब।
तू ही जननी, तू ही जग है,
अन्नपूर्णा, तू तो भग है।
तेरी कृपा से कौन नहीं तरा,
कौन है जिसका घर तूने नहीं भरा।
सागर में जाकर था मिलना,
घाटों से घाटों का था खिलना।
सब तेरी ही तो माया,
तू ही जननी, तू ही जाया।
हे प्रिये, हे प्रियतमे,
तुम हो गंगे,
तुम ही शिव हो,
तुम ही शिवा हो।
तेरे ही सारे साथी संगे।
कभी न रुकना, सदा ही बहना,
कल्याणी हो, कल्याण ही करना।
तुम मेरी हो, बस यादों में याद ही रखना
करुणा सागर से निकली इस गंगा को,
किसने जाना, किसने माना।
किसने जाना, किसने माना।
मैं गंगा सागर हूं,
शिव और शिवा बन जाता हूं।
कोई न जाने, कोई न माने।