अर्जुन कृष्ण संवाद
“मौनं चैवास्मि गुहयानां ज्ञानं
ज्ञान वतामहम।” गीता १०.३८
मत पूछो बार-बार, हो तुम कौन ?बताया ना तुम्हें,
हूं रहस्य में ,
“मैं मौन “।
जब-जब तुम संदेह करते हो, खुद पर, या मुझ पर, या मेरी इस खूबसूरत दुनिया पर, रोते हो, उलझ जाते हो, झुंझलाते हो ,तुम स्वयं पर।
तुम पूछते क्यों तुम्हारी यह दुनिया बदलती है ।
मैं कहूं क्योंकि इस नगरी की माया मेरी है प्रियतमा।
तुम प्रश्न करते क्या करूं कि तुम रीझ जाओ।
मैं कहूं बस स्वधर्म में स्थित प्रज्ञन हो, योगी बन जाओ ।
तुम पूछो क्या
सब बिगड़े काम मेरे संवर जाएंगे ।
मैं कहूं क्या बिगड़ा क्या बना
सब तेरा स्वार्थ है, छोड़, मेरे तेरे का झगड़ा, तू तो मेरा, प्यारा पार्थ है।
तुम पूछते कैसे जानू कि तुम सदा मेरे साथ हो ।
मैं कहता आंखें मूंद कर, मन में ध्यान धर,
मैं ही तो ,
तेरी” शवांस” हूं।
तुम कहते, जब तुम सदा मेरे साथ थे, तो पहले क्यों ना, एहसास कराया ।
मैं कहता बड़े थे, सबल थे ,तब तुम,
अब रो कर, निर्बल बन जो तू आया।
जीवन -पथ पर, आगे देख ,
जो सब देख रहे हैं, उससे भी आगे देख,
देख ,क्योंकि मैं ,तुझे दिखा रहा हूं,
मत घबरा ,
कल क्या होगा “आज ही सच है”, बार-बार समझा रहा हूं।
कल की इच्छा मत रख प्यारे,
यह नहीं कहा मैंने, फल तो मिलता अवश्य,
इस नियम से तो, स्वयं को बांधा ,
खुद मैंने।
हां कहां मिलेगा, कब मिलेगा,
किधर मिलेगा, कैसे मिलेगा,
सब प्रश्नों को तू छोड़ ,
प्रारब्ध, वर्तमान, भविष्य ,
सब हैं बस,
जीवन -पथ के मोड़।
इन मोड़ों पर तुझे, रुक नहीं जाना है, “विजेता” वही, जिसने “सांसों “को संपत्ति माना है।
एक सांस आकर, एक सांस जाकर, “लेना -देना जीवन है”सिखलाती,
पर तू लोभ में ,संचयवृती की, खुद की जान, फंसाता है,
और मुझ पर इल्जाम लगाता है ।
छोड़े बिन
” नई राह ”
नहीं मिलती,
रात के बिना
नई सुबह कहां खिलती
छोड़ कर सब आश्रय
“मामेकं शरणं बृज” ,
मेरी शरण में आओ, सब कुछ “मुझ में”,
सब कुछ” मैं,”
“मुझ ही से,”
सब पाओ।
“गुह -रहस्य” मैं तुम्हें फिर समझाऊं ,
फिर बताऊं तुम्हें,
हूं रहस्यों में,
“मैं मौन” ।
मत पूछो बार-बार, “हूं मैं कौन?”
बताया ना तुम्हें,
हूं रहस्यों में ,
“मैं मौन”।