कंचन और मंचन ने, चिंतन और मंथन ,
को पीछे छोड़ दिया।
नैसर्गिक गोद है मां प्रकृति की
हे मानव तूने मन को कहां-कहां न मोड़ दिया।
नैमिषारणयय
या हो गंगा के किनारे
होती थी जब कथाएं।
वनों में हरते थे महावीर और बुद्ध, प्रबुद्धों के मन की भी व्यथाताएं।
फिर क्यों आज घर-घर हो रही है
दिखावे की बातेंयह बड़े-बड़े टेंट और सजे पंडाल
इन सिमटते जंजालों को कैसे काटें।
हे प्रभु प्रशन अस्तित्व का, तुम्हारे विराट स्वरूप का है,
एसी कूलर पंखों में, गुरु ज्ञान सिर्फ खोखा है।
बाहर निकल खुद के जकड़-पन से
ओ
मेरे प्यारे मन
ब्रह्म
सहज है सरल है सर्वत्र है
यही कहता है शिव- मन।
सो पुकारो जहां हो खड़े
क्यों तुम सुविधाओं में हो जकड़े
तुमने खुद पकड़ रहा रखा है पेड़ को,
पेड़ ना कभी तुमको पकड़े।
मां प्रकृति की गोद में,
क्षितिज जल पावक गगन समीरा।
पंच-रचित अति अधम सरीरा।
पांच ज्ञानेंद्रिययां पांच कर्मेंद्रियां
मन बुद्धि चित्त अहंकार
यही है बस चोदह महत्व
इसी से स्वर सजे
“एक ओंकार”,
बस इसी से स्वर सजे
“एक ओंकार”।