“स्त्री”

“स्त्री” के अस्तित्व की

 तुम बात मत करो

अपने अस्तित्व को झुका “स्त्री” को नमन करो।

“मम प्रिय माया”

गीत जिसने गाया,

उसको और उसकी कृति को तुम नमन करो।

समझ जो नहीं आया

उसे मत नकारो

अपनी असमर्थता छोड़

“प्रभु की” सामरर्थ्यता को नमन करो।

क्या पलता है

 उसके “तुमबाढ़” में, कोख में,

यह समझना तुम्हारा सामर्थ्य नहीं,

एक जनेगी ,दो जनेगी कि

और ज्यादा जनेगी ,

काला जनेगी कि गोरा जनेगी ,

टेढ़ा जनेगी कि सीधा जनेगी

जुड़वा जनेगी या जुड़ा जनेगी

आधा जनेगी पूरा जनेगी

सीधा जनेगी या उल्टा जनेगी

सब संभावनाएं, उसकी अपनी व्यवस्था है

तुम नहीं समझ सकते,”स्त्री वह कथा है।”

“मां” को केवल स्त्री समझना

तुम्हारी कितनी बड़ी भूल है

 पूरे वृक्ष को कैसे समझो,

जिसके तुम सिर्फ एक फूल हो।

स्त्री की कोई जाति नहीं होती

स्त्री केवल स्त्री होती है ममता दया करुणा

शक्ति रोद्रा “समर्पणा”

सब कुछ उसमें समाया है।

समझ नहीं पाते तुम तो
अपनी नासमझी में

उस पर लांछन लगाया है।

मत आकों उसको

अपने नजरिए से

नमन करो बस नमन करो

हर जरिए से।

“स्त्री” वह खुशबू है

जो दिखाई नहीं देती

अस्तित्व उसके पर प्रश्न चिन्ह ?

  या हो लापरवाही

वह चुप हो सह लेती

पर कभी-कभी अपने तरीके से जवाब भी देती है।

तुम्हारा दिया हुआ कुछ नहीं रखती

कई गुना बढ़ा कर लौटा देती है

अच्छा या बुरा जो तुम्हें मिला

वह सब तुम्हारी ही वजह से है.

क्यों अकुलाते हो

क्यों झल्लाते हो

सब कुछ लौटता समय से है।

स्त्री स्पर्श है स्पष्ट है

कभी नहीं कहती

कहां उसे कितना कष्ट है।

मरहम तुम्हें जरूर लगाए

पर अपना दर्द वो सह जाए 

कोई है अगर तुम्हारे जीवन में भी “स्त्री” ऐसी,

तो नमन करो,

खुद को,

उसको,

तुम्हारी दुनिया बने, “स्वर्ग” सी।

Sangam Insight

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